खट्टी मीठी जिंदगी

Last updated 29 Oct 2019 . 1 min read



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पूजा अग्रवाल ने #5Days5Episodes चैलेंज में "खट्टी मीठी जिंदगी" कहानी को 5 एपिसोड्स में लिखा था व तमाम प्रतियोगियों में से वे विजयी हुई है। आज हम उन्ही की कहानी आपके सामने रखेंगे। पसंद आये तो हमे कमेंट करके अवश्य बताइयेगा।

#कथांश 1

सागर कार की खिड़की से बाहर झांक रहा था। नया नहीं था शहर उसके लिए। भीड़-भाड़, मोटर गाड़ियों का शोर, समय से आगे निकलने की होड़ में भागते लोग, स्कूल की गाड़ियों में ठूंसे हुए बच्चे, ऐसा शहर है यह आगरा। जल्द ही सागर अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गया।

शिवाजी अपार्टमेंट्स में पेशे से मार्केटिंग मैनेजर, सागर दवाई की कंपनी में कार्यरत था। माता-पिता पुणे में रहते थे। यहां कंपनी का ब्रांच ऑफिस था। पहले अक्सर होटल में ठहरता था सागर पर कुछ ही दिन पहले उसके दोस्त  अमर ने बताया था कि एक फ्लैट बहुत ही कम किराए में उपलब्ध है। उसको लगा यह अच्छा है, मां को भी अच्छा लगेगा। माँ को पिताजी की तरह कोठियां पसंद नहीं थी, उनको हमेशा आसपास लोग चाहिए थे। कोठियां लोगों को दूर कर देती है, ऊपर से साफ सफाई, रखरखाव सब मुश्किल। चंद रिश्ते रह गए हैं, परिवार सिमट गए हैं, इसलिये चहल-पहल वाली जगह बेहतर रहती है।

जरूरत पड़ने पर सब एक साथ वरना सब अलग-अलग अपने अपने घर में। मां जब कभी आना चाहे उनकी यह ख्वाहिश भी पूरी हो जाएगी।

सागर 1 दिन पहले आ चुका था। बगल वाले फ्लैट की उसने चाबी के लिए घंटी बजाई, अधेड़ सी उम्र के आदमी ने दरवाजा खोला।

"आप कौन?" जी मैं वह .."

"अच्छा-अच्छा रुकिए।"

"नमस्कार, मेरा नाम सतीश शर्मा है, हमारे अपार्टमेंट्स में आपका स्वागत है। परेशानी हो तो बताइएगा” चाबी पकड़ाते हुए शर्मा जी बोल रहे थे।

"सुना है आप अविवाहित हैं?" शर्मा जी ने पुछा।

"हां" सागर ने जवाब दिया।

"आपने यह फ्लैट क्यों लिया? बड़ा मनहूस बताते हैं इसे"

"वह क्यों?" सागर उत्सुकतावश पूछ बैठा। हालांकि वह अंधविश्वास को भी नहीं मानता था।

"क्योंकि इस फ्लैट में रहने वाले पति-पत्नी और बेटा तीनों सड़क दुर्घटना में भगवान को प्यारे हो गए, बस बेटी रह गई जो हॉस्टल में पढ़ती है। यहां उसकी बुआ रहती हैं जो मकान की देखरेख करती हैं और शायद उन्हीं से आपकी बात हुई होगी।"

"चलिए मैं चलता हूं फिर मुलाकात होगी" कहते हुए सागर ने विदा ली, उसको एक-एक पल भारी पड़ रहा था।

"देखिए आज अपना सामान सेट कर लीजिए, शाम को खाना हमारे साथ" शर्मा जी विनम्र भाव से बोले।

"अरे नहीं नहीं .."

"ऐसा कैसे? अच्छा मैं आपका खाना भेज दूंगा, आप कष्ट ना करें" शर्मा जी ने आग्रह किया।

सागर को उनका मिलनसार व्यक्तित्व अच्छा तो लगा पर कुछ अजीब था जो वह भाप ना सका।

क्या फ्लैट वाकई मनहूस था?

शर्मा जी के मन में आखिर क्या था?

नया शहर क्या सागर को रास आएगा?

जानने के लिए देखिए हमारा अगला एपिसोड।

#कथांश 2

घर में घुसते ही सागर ने अपने दोस्त को धन्यवाद किया जिसने साफ-सफाई करा दी थी। एक नजर मकान पर डाली तो देखा कि यह दो बेडरूम का फ्लैट था जिसमें एक डाइनिंग, एक ड्राइंग और एक रसोई भी थी। मकान से घर, घर से मकान बनने में समय नहीं लगता। कितनी जीवंत होगी जगह कुछ महीने पहले और अब यहां पर सांप लोट रहे हैं।

चाय का जरूरी सामान निकालकर उसने अपने लिए अदरक वाली चाय बनाई। मां ने करीने से सारा सामान रखा था। सब बैग पर अलग-अलग स्लिप लगी हुई थी। मां की अहमियत उससे दूर रहकर पता चलती है।

लड्डू, मठरी, नमकीन मना करने के बाद भी उन्होंने जबरदस्ती रख दी।

"चुप रह, कभी तो मान जाया कर, शादी कर लेता तो मैं निश्चिंत हो जाती।”

"अरे! मां आप.." मुस्कुरा कर रह गया था सागर।

चाय का कप लेकर बालकनी में आकर खड़ा हो गया। आसपास का नजारा देखकर उसको एक बार तो अच्छा ही लगा। रविवार का दिन था इसलिए चहल-पहल ज्यादा थी। बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे और अचानक बॉल दो फ्लैट छोड़कर एक कांच के दरवाजे पर लगी। अंदर से एक आदमी जो की तैश में था, बाहर निकल कर बच्चों की तरफ दौड़ा।

"किसने फेंकी है? बच्चे पहले ही भाग खड़े हुए थे पर एक का हाथ उसके हाथ में आ गया था।

"अरे अंकल जी, जाने दो ना कांच टूटा नहीं है अभी, आप इतना गुस्सा क्यों कर रहे हो?”

सुनते ही उसको पुरानी यादें जेहन में ताजा हो गई और होठों पर मुस्कान आ गई।

सागर कुछ सोचते हुए सोफे पर आकर बैठ गया। चलो आज कोई पुरानी पिक्चर देखी जाए, कौन सा रोज-रोज में इतना फ्री होता हूं, कल से काम पर जाना है।

मनोरंजन की दुनिया में केबल टीवी हाल ही में लगे थे। लोगों की तो जैसे दुनिया ही बदल गई थी। अभी तक सिर्फ एक दूरदर्शन ही था जिसमें कुछ गिने-चुने कार्यक्रम आते थे जिसमें से रामायण, रंगोली, यह जो है जिंदगी, हम पांच, व्योमेश बक्शी उसको बेहद पसंद थे ।

बचा कुचा समय वह अपनी लेखनी को देता था।

शेरो शायरी और छोटी-छोटी कविताएं लिखने के शौक ने उसकी कई डायरिया भर दी थी।

अचानक दरवाजे की घंटी बजी।

"अब कौन होगा? खैर दरवाजा खोलते ही वह सकपका गया। सामने एक सुंदर सी नवयुवती खड़ी थी जो मुस्कुरा रही थी।

"जी वह , पिताजी ने", उसने शर्मा जी के घर की तरफ इशारा किया और बोली "आपके लिए खाना भिजवाया है और मैं उनकी बेटी मानसी।"

"अरे मैं मैनेज कर लेता"

 कैसे कर लेते" वह बेधड़क घर में घुस गई।

"देखिए! पड़ोसी धर्म भी तो कुछ होता है। मेरा नाम मानसी है"

"हां अभी आपने बताया था।"

" वही तो, मैं बीए कर चुकी हूं। बहुत अच्छा खाना बनाती हूं और गाना मेरी हॉबी है।"

"पर मैंने पूछा नहीं"

"पूछ कर क्या करेंगे? मैं खुद ही बताती हूं, आजकल कंप्यूटर कोर्स कर रही हूं"

"जी अच्छी बात है"

"वही तो मेरा मन बहुत साफ है, जो आता है वह बोल देती हूं, कोई भी दिक्कत हो तो आप बता देना।" एक सांस में बोलती चली गई मानसी।

"जी बिल्कुल।"

अब उसके दिमाग की बिजली कौंधी, क्यों उसके अविवाहित होने पर शर्मा जी इतने खुश हो रहे थे। चंद मिनट निकलते ही वे तपाक से बोला, "मुझे जरा जाना था बाहर।"

"अच्छा, फिर मिलते हैं।" यह कहकर वह चली गई, बड़ी राहत की सांस ली सागर ने। 

"ट्रिन ट्रिन", फोन की घंटी बजी तो सागर का माथा ठनका।

अभी मैंने किसी को नंबर नहीं दिया है घर का, यही सोचते हुए उसने फोन उठाया।

कौन था फोन पर ?

क्या होने वाला था?

जानिए अगले एपिसोड में। 

#कथांश 3

ट्रिन ट्रिन फोन की घंटी बज रही थी।

पता नहीं किस का फोन होगा? अभी तो यह नंबर मैंने किसी को दिया भी नहीं है, यह सोचते हुए उसने फोन का रिसीवर उठा लिया।

दूसरी तरफ से आवाज आई "मैं आपके घर की मकान मालकिन बोल रही हूं। आशा है आपको दिक्कत नहीं हुई होगी। देखिए आपके दोस्त ने बताया था कि आप एक अच्छे परिवार से आते हैं। आशा है आप इस बात का ध्यान रखेंगे और अपने घर की तरह इसकी संभाल करेंगे। समय पर किराया दे दीजिएगा, मेरी भतीजी हॉस्टल में रहती है, उसको फीस की जरूरत थी इसलिए कम किराए में ही मान गए हम। प्रॉपर्टी देख कर तो लगता होगा आपको आप सच में बहुत भाग्यशाली हैं वरना इन दामों में आगरा शहर में कोई इतना अच्छा फ्लैट नहीं मिलता।"

"जी जी" बीच में ही काट दी उसने बात या आगरा वाले कितना बोलते हैं।

अचानक बिजली चली गई। अंधेरा ही अंधेरा। नई जगह पर कौन सी चीज कहां है पता नहीं चलता, वह तो शुक्र है कि राजीव ने बता दिया था कि यहां लाइट बहुत जाती है और सारा जरूरी सामान ऊपर मेज की दराज में रखा है। टटोलकर उसे जल्दी मोमबत्ती और माचिस मिल गए पर उसके साथ एक तस्वीर भी उसके हाथ में आ गई। मोमबत्ती जलाते ही लाइट आ गई "हद है सच्ची।" पर  उसकी नजर तस्वीर पर अटक गई।

छोटा सा सुखद परिवार, माता-पिता बड़ा लड़का और छोटी लड़की। लड़का उसी की उम्र का लग रहा था लगभग।

इनमें से 3 लोग तो तस्वीर बनकर ही रह गए। वक्त किसी के साथ नहीं रहता कितने सपने देखे होंगे इस परिवार ने इस घर में। पर देखते ही देखते सब बिखर गया।

रात को सागर को नई जगह की वजह से नींद नहीं आई। सारी रात करवटें लेता रहा सुबह तड़के उठकर दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर वह अपने काम के सिलसिले में ब्रांच ऑफिस चला गया। राजीव ने एक सफाईकर्मी  और खाना बनाने वाली का भी इंतजाम कर दिया था जो उसके ऑफिस जाने से पहले ही अपना काम कर जाते थे। मां और पिताजी को उसने अपनी कुशल क्षेम की खबर दे दी थी और विश्वास जता दिया था कि वह वहां खुश है।

अगले दिन सुबह करीब 9 बजे दरवाजे पर दस्तक हुई सामने डाकिया खड़ा था उसने गुलाबी रंग का लिफाफा सागर की तरफ बढ़ा दिया पता उसी जगह का था पर नाम कुछ और था।

"ऐसे दो लिफाफे मैं पहले भी लेकर आ चुका हूं पर कोई मिलता नहीं, शुक्र है आज आप हैं" डाकिया बोला।

इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता डाकिया उसके हाथ में लिफाफा पकड़ा कर आगे चल दिया।

यूं तो इस तरह किसी का पत्र खोलना उसके आदर्श के खिलाफ था फिर भी कोतहूल वश और और यह सोचकर कि इस परिवार में यहां कोई नहीं है जरूरी होगा, तो मैं मकान मालकिन तक पहुंचा दूंगा।

क्या था इस पत्र में?

आगे सागर की जिंदगी में क्या होने वाला था?

क्या उसके अतीत से इसका कोई संबंध था?

क्या घर वाकई मनहूस था?

जानने के लिए देखिए हमारा अगला एपिसोड नमस्कार।

#कथांश 4

कहानी अब तक

सागर एक मार्केटिंग मैनेजर है जो कि आगरा में अपनी कंपनी के काम के सिलसिले में आया है। उसके माता-पिता छोटे भाई के साथ मुंबई में रहते हैं। जिस किराए के फ्लैट में वह रहने आया था, उस परिवार के 3 लोग माता-पिता और बेटे की अकस्मात दुर्घटना में मौत हो गई थी। यहां उसके साथ अजीब-अजीब घटनाएं घट रही है। डाकिया उसको एक गुलाबी रंग का पत्र पकड़ा कर चला जाता है।

अब आगे.... 

सागर के पत्र खोलते ही गुलाब की पंक्तियां फर्श पर बिखर गईं। पत्र किसी आरुषी ने आयुष को लिखा था जो उसको लग रहा था कि इसी घर के लड़के का नाम होगा जो अब इस दुनिया में नहीं रहा। पहली पंक्तियां कुछ इस प्रकार थी।

"प्रिय आयुष, आशा है तुम ठीक होंगे। यह मेरा इस महीने में तीसरा पत्र है। बड़ी हिम्मत करनी पड़ी इसे लिखने के लिए, मेरा आत्मसम्मान आगे आ रहा था। कृपया जवाब जरूर देना, चाहे कुछ भी हो। तुम्हारे घर का टेलीफोन नंबर मिल नहीं रहा है मेरा नंबर भी चेंज हो गया है शायद तुमने कांटेक्ट करने की कोशिश की हो इसलिए यह पत्र लिख रही हूं।"

पत्र की शुरुआती पंक्तियां स्पष्टीकरण दे रही थी कि इस लड़की आयुषी जो कि उसकी प्रेमिका प्रतीत हो रही थी को आयुष के स्वर्गवास का कुछ भी आभास ना था। पढ़ने के साथ ही सागर को उसके प्रति सहानुभूति हो रही थी।

"क्या बीतेगी इस पर जब इसे स्थिति का ज्ञात होगा"।

खैर आगे जो लिखा था वह और भी झकझोर देने वाला था।

"हमारा रिश्ता विवाह के बंधन में बंधने ही वाला था कि दुर्घटना में मेरे पिताजी गुजर गए। तुम्हें तो पता ही होगा हमारे ऊपर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा था, हालांकि मैंने तुम्हें बताया नहीं कि पिताजी की तेरही भी नहीं हुई थी कि घर पर लेनदारों का तांता लग गया था। रिश्तेदार भी जरूरी सामाजिक दिखावा करके मुंह फेर कर चले गए।

विपत्ति के समय कौन किसका साथ देता है, यही तो संसार है। यह तो अच्छा है कि मेरे भाई और मेरी बचत, कुछ पुराने जेवर और फिक्स डिपाजिट की बदौलत हम जैसे तैसे कर्ज़ों से बरी हो पाए। तब भी तुमने मेरा साथ ना छोड़ा था और कहा था कि तुम हमारा रिश्ता बरकरार रखोगे। फिर क्या हुआ? क्या तुम किसी दवाब के तहत मुझसे यह सब बोल गए थे। मुझे तुम्हारा संवेदना या कोई मानसिक दबाव में निर्णय नहीं सुनना क्योंकि इससे आगे हम दोनों को तकलीफ ही होगी।

तुम से निवेदन करती हूं अपना जवाब मुझे अवश्य देना। मैं तुमको किसी भी तरह का दोष नहीं दूंगी। मैं आज की नारी हूं। स्थितियों के अनुसार चलना मुझे आता है। मैं मानसिक रूप से इतनी विकलांग नहीं हूं कि तुम्हारी ना को स्वीकार ना कर सकू। तुम्हारे उत्तर की प्रतीक्षा में आरुषि।"

पत्र क्या था पूरा तूफान था जिसने उसको झकझोर दिया था। सागर जहां था वहीं धम्म से बैठ गया। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा शरीर सुन्न पड़ गया हो। ह्रदय गति तेज चल रही थी। क्या वह जो सोच रहा था सचमुच ऐसा ही था।

"हे भगवान।" उसे कुछ पल लग गए वर्तमान में वापस आने के लिए। आरुषि उसने फिर से पत्र पर पता चेक किया। पत्र मुंबई का ही था। उसे चंद मिनट लगे यह पता लगाने के लिए कि यह वही आरुषि है जो उसके साथ कॉलेज में पढ़ती थी।

बिल्कुल चंचल और बहुत ही सुंदर। कॉलेज में वार्षिक उत्सव में हर साल वह अपनी कक्षा का प्रतिनिधित्व करती थी। हर बार सागर की लाख कोशिश करने के बावजूद श्रेष्ठ विद्यार्थी का ईनाम आरुषि की झोली में ही आता था। कोई भी लड़का आरुषि से आकर्षित हुए बिना नहीं रह पाता था पर वह किसी से सीधे मुंह बात नहीं करती थी जब देखो नाक पर गुस्सा लेकर घूमती थी।

शायद यह उसका आवरण था अपने आप को दूसरे मनचलों से बचाने के लिए। सागर भी उसको मन ही मन चाहता था अपने जीवन साथी की उसने जो कल्पना की थी, आरुषि उस सांचे में पूरी उतरती थी। उसको याद था वह कॉलेज का आखिरी दिन और आरुषि का गाया हुआ गीत। 

"बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी, ख्वाबों में ‌ही हो चाहे मुलाकात तो होती" बड़ी मुश्किल से सागर अपने आंसुओं का वेग रोक पाया था। वह मंत्रमुग्ध होकर आरुषि को देख रहा था। गुलाबी रंग का सूट और बालों में मोगरे का गजरा उसकी खूबसूरती को चार चांद लगा रहे थे। कुकर की सीटी में सागर चेतना में आया। पूरा दिन उसके अवचेतन मन में आरुषि घूम रही थी। पत्र का उत्तर उसको देना जरूरी लगा। दिनभर की कशमकश के बाद वह पत्र लिखने बैठ गया जो शायद उसने सपने में भी कल्पना नहीं की थी।

क्या लिखा सागर ने पत्र में? 

क्या आयुषी और सागर मिल पाएंगे?

क्या आरुषि आयुष को माफ कर पाएगी?

जानने के लिए देखिए हमारा अगला एपिसोड तब तक के लिए नमस्कार।

#कथांश 5

आयुषी को पत्र लिखते समय उसको कुछ बातों का बहुत ध्यान रखना था कि उसकी किसी बात से उसको दुख ना हो और वह आयुष को भी भूल जाए। भले ही  वह आयुषी को सच बताने की हिम्मत ना कर सका हो पर आज भी दिल के किसी कोने में आयुषी के लिए उसकी चाहत कायम थी।

आरुषि  को आयुष की मौत का समाचार देना उस पर वज्रपात करना जैसा था। आखिर में बहुत सूझबूझ के साथ उसने इस चक्रव्यूह से निकलने का मूल मंत्र ढूंढ ही लिया। पत्र कुछ इस प्रकार था।

"प्रिय आरुषि, तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे पिता का समाचार सुनकर दुख हुआ। आयुष अपने परिवार के साथ शहर छोड़ कर 2 महीने पहले ही अमेरिका रवाना हो गया, उनके चाचा को व्यवसाय में भारी नुकसान हुआ था और इस कारण वे गहरे सदमे में थे। उनकी मदद बतौर पूरा परिवार वही चला गया। शायद वह तो तुम्हें बता ना सका हो कि उसने अपनी माता-पिता की इच्छा के आगे घुटने टेक दिए है।

तुम अपनी जिंदगी में आगे बढ़ जाओ। उसका इंतजार मत करना बेटी।"

आयुष की बुआ सुधा।

बुआ के नाम से पोस्ट करने में यह पत्र उसे अजीब तो लगा पर इससे बेहतर विकल्प उसको समझ नहीं आ रहा था। आगे दशहरे की लंबी छुट्टी थी। मां भी बुला रही थी।

"तू तो वहीं का होकर रह गया रे, मां की याद भी नहीं आती तुझे।"

आयुष का मन भी यहां नहीं लग रहा था। चलो इन छुट्टियों के बहाने ही सही वह अपनी मां से मिला आएगा। यह तो त्यौहार ही तो होते हैं जिनके बहाने से सब साथ मोद-आमोद से एक दूसरे के साथ समय काट पाते हैं वरना आज की भागती दौड़ती जिंदगी में समय कब निकलता है पता ही नहीं चलता। इंसान सब कुछ भूल जाता है, बस यही अनमोल, अविस्मरणीय पल मन में हमेशा रह‌ जाते हैं।

उसमें अगस्त क्रांति की टिकट बुक कराई और दिल्ली से ट्रेन पकड़ ली। अगले ही दिन तड़के वह मुंबई पहुंच गया।

मां पिताजी की खुशी का ठिकाना नहीं था, "अब त्योहार का मजा दोगुना हो जाएगा, मेरा बच्चा मुझसे दूर रहे फिर काहे की खुशी काहे का त्योहार?"

यद्यपि सागर को अपने परिवार के साथ अच्छा लग रहा था पर उसके मन में उथल-पुथल चल रही थी, उसके जहन में बस आयुषी घूम रही थी और वह जानना चाहता था कि उसकी जिंदगी में क्या चल रहा है। उसने खुद को संभाल लिया है या नहीं। पर कैसे जाने?

मां बच्चों का मन भांप लेती है चाहे वह कुछ बताएं या ना बताएं। तभी तो भगवान से भी ऊपर का दर्जा दिया गया है मां को। अंतर्यामी होती है मां, अपने बच्चों के लिए। सागर की परेशानी भी‌ मां से अनदेखी नहीं थी।

मां के सर पर हाथ फेरते ही सागर ने उनको सारी कहानी एक झटके में बता दी।

"मुंबई में रहती है ना? तू मेरे को उसकी तस्वीर दिखा। तू देख अब मैं क्या करती हूं।"

सागर ने एक तस्वीर मां के आगे बढ़ा दी जो उसके दोस्त ने फैक्स से भेजी थी। रुक मैं अभी आती हूं।

“क्या करने जा रही हो मां?”

अगले ही पल जो होने वाला था वह सागर ने सपने में भी कल्पना नहीं की थी।

मां जल्दी से कमरे में से एक बायोडाटा लेकर आई और बोली, "इसका भाई फिजियोथैरेपिस्ट है, तेरे पिताजी के उपचार के लिए रोज घर आता है जबसे उनके पैरों में तकलीफ बढ़ी है तभी से। बड़ा नेक बच्चा है। एक दिन वह बोला "आंटी मैं आपको अपनी बहन का बायोडाटा देता हूं, कोई रिश्ता हो तो बताइएगा।"

"इसे कहते हैं बगल में छोरा गांव में ढिंढोरा"

मां खिलखिला कर हंस पड़ी। सागर की तो बांछे खिल गई। अगले दिन उसके माता-पिता उसका रिश्ता लेकर आयुषी के घर पहुंच गए। तारीख पक्की कर दी गई मिलने मिलाने की। बड़ी मुश्किल से अपनी भावनाएं छुपाया था सागर। आयुषी सामने खड़ी थी, वैसी ही थी वह जैसी उसने उसे कॉलेज में छोड़ा था।

सोम्य, सौभ्य, सादगी से भरी आयुषी। वह सागर को देख कर चौंक गई "अरे तुम ..तुम तो।

"हां, मैं सागर, तुम्हारे कॉलेज का सहपाठी।"

"मुझे इस संबंध से कोई एतराज नहीं है पर मैं तुमको अपने अतीत के बारे में कुछ बताना चाहती हूँ।"

"मुझे सब ज्ञात है आयुषी, यह ना पूछना कैसे? वह मैं कभी तसल्ली से समझा दूंगा। जो भी था तुम्हारा अतीत था वह मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। यदि तुम सब कुछ भूल कर मेरे साथ मेरी संगिनी बनकर साथ चलोगी तो मेरे लिए इससे बड़ी उपलब्धि कोई ना होगी।"

आयुषी ने सिर हिलाकर हां कह दी। कुछ औपचारिकता के बाद संबंध पक्का हो गया।

दीपावली अब दूर नहीं थी पर सागर के मन में जो दिए जल रहे थे उसकी ज्योति उसके और आयुषी के अंधकार को  का मिटा देने में पूर्ण सक्षम थी।

समाप्त। आपके समय के लिए दिल से आभार। नमस्कार।

लेखिका: पूजा अग्रवाल


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